Bhagavad Gita: Chapter 3, Verse 5
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥5॥
Indeed, no one can ever remain inactive even for a moment, becouse everyone is helplessly forced to perform actions by the nature born qualities.
Bhagavad Gita: Chapter 14
सत्त्वं रजस्तम इति गुणा: प्रकृतिसम्भवा: |
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ||5||
O Mahabaho ! Originating from the nature, Sattva, Rajas and Tamas – these Gunas bind the indestuctible soul to this body
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् |
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ||6||
O Anagha ! Out of these Gunas, Sattva Being the pure one, is luminous and free from sorrow. It binds a person through attachment to happiness and knowledge.
- Interested in getting knowledge and
- Trying to search for true happiness
- Clarity in intellact, Purity in Heart, Sincerity in Action
- Positive Attitude – Taking things in positive way
- Doing your duty without expecting any reward
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् |
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ||7||
Rajas, with the nature of passion, gives rise to desires and attachment. It binds the embodied soul through attachement to actions.
- There is a desire in mind to do something
1. Sensory Plesure – sabda, sparsa, rupa, rasa, gandha appears to be joyful to mind. – Short Lifespan – Easily achievable
2. Conceptual Plesure – Thinking about Wealth, fame, Authority and child appears to be joyful to mind – Longer Lifespan – Need More affort to achive - becoming Restless
Movement of Body or wandering mind or thinking about Past or Future, All action drive for own interest, - Not being in equanimity
Sometimes very sad or sometime very happy - Attachment to Results – Action with fruits
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् |
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ||8||
Tamas has originated from ignorance. It deludes all embodied beings and binds them though miscomprehension, laziness and sleep.
- Laziness – feeling of doing nothing
- Carelessness – knowing that it is wrong but still doing the same
- Sleeping – Feeling sleepy
- ignorance – taking everything wrong
- Negative Attitude
सत्त्वं सुखे सञ्जयति रज: कर्मणि भारत |
ज्ञानमावृत्य तु तम: प्रमादे सञ्जयत्युत ||9|
O Bharata ! Sattva binds one to happiness, Rajas binds to action but Tamas hides wisdom and gets him indulged in miscomprehension.
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत |
रज: सत्त्वं तमश्चैव तम: सत्त्वं रजस्तथा||10||
O Bharata ! Overpowering Rajas and Tamas increses Sattva, Overpowering Sattva and Tamas increases Rajas, and Overpowering Sattva and Rajas increases Tamas.
Day 2
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते |
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत||11||
लोभ: प्रवृत्तिरारम्भ: कर्मणामशम: स्पृहा |
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ || 12||
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च |
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन||13||
जब इस देह के समस्त इन्द्रियरूपी द्वारों में ज्ञानरूपी प्रकाश (विवेक) उत्पन्न हो जाये, तब सत्वगुण बढ़ा हुआ जानना चाहिए। (11)
हे भरतषर्म ! रजोगुण बढ़ने पर लोभ, वासना, चंचलता, कार्य की प्रवृति और अशांति पैदा होती हे। (12)
हे कुरुनन्दन ! तमोगुण के बढ़ने पर अंधकार (अविवेक), कर्म से विमुखता, आलस्य, प्रमाद और मोह पैदा होते हे। (13)
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् |
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते || 14||
रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते |
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ||15||
जिस समय मनुष्य का सत्वगुण बढ़ा हो, यदि उस समय उसकी मृत्यु हो जाये तो वह स्वर्ग लोक को प्राप्त करता हे। (14)
रजोगुण के बढ़ने पर मरने वाला प्राणी कर्म आसक्ति वाली मनुष्य योनि में जन्म लेता हे तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरने वाला प्राणी मूढयोनि अर्थात किट , पशु आदि में जन्म लेता हे । (15)
कर्मण: सुकृतस्याहु: सात्त्विकं निर्मलं फलम्|
रजसस्तु फलं दु:खमज्ञानं तमस: फलम्||16||
श्रेष्ठ कर्म का फल सात्विक और निर्मल कहा गया हे । रजस कर्म का फल दुःख और तमस कर्म का फल अज्ञान कहा गया हे । (16)
सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च |
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च || 17||
सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता हे। रजोगुण से लोभ तथा तमोगुण से प्रमाद, मोह और अज्ञान उत्पन्न होता हे ।
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसा: |
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसा: ||18||
सत्वगुण में स्थित मनुष्य उच्च लोको में जाते हे । रजोगुण में स्थित मनुष्य मध्य अर्थात मनुष्य लोक में जन्म लेते हे और तमोगुण में स्थित मनुष्य निम्न योनि अर्थात किट, पशु को प्राप्त होते हे ।
Day 3
नान्यं गुणेभ्य: कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति |
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति || 19||
जब साक्षी तीनो गुणों के अतिरिक्त किसी अन्य को कर्ता के रूप में नही देखता और इन तीन गुणों से परे मेरे तत्व को जनता हे तब वह मेरे स्वरुप को प्राप्त करता हे।
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् ।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्रुते ॥20॥
प्रकृति के इस तीन गुणों से उत्पन्न होने वाले इस शरीर को धारण करनेवाला यह पुरुष इन तीनो गोनो को पर कर जाता हे तो वह जन्म , मृत्यु , बुढ़ापा और दुखो से मुक्त होकर मुझे परैत कर अमर हो जाता हे।
अर्जुन उवाच।
कैर्लिङ्गैस्त्रीनगुणानेतानतीतो भवति प्रभो ।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीनगुणानतिवर्तते ॥21॥
अर्जुन बोले –
हे प्रभो ! इन तीन गुणों से मुक्त हुआ पुरुष किन लक्षणों से युक्त होता हे ? वह किस प्रकार के आचरण से युक्त होता हे और वह किस साधन से इन तीन तीनो गुणों से मुक्त होता हे ?
श्रीभगवानुवाच।
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥22॥
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येवं योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥23॥
श्री भगवान बोले –
हे अर्जुन! तीनों गुणों से गुणातीत मनुष्य न तो प्रकाश, (सत्वगुण से उदय) न ही कर्म, (रजोगुण से उत्पन्न) और न ही मोह (तमोगुण से उत्पन्न) की उपलब्धता होने पर इनसे घृणा करते हैं और न ही इनके अभाव में इनकी लालसा करते हैं। जो तटस्थ हो होकर “गुण ही गुणमे कार्य कर रहे हे ” ऐसा जानकर जो अपने स्वरूप में स्थित रहता हे और उस स्थिति से विचलित नहीं होता ।
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥24॥
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।
सर्वारम्भपरत्यिागी गुणातीतः स उच्यते ॥25॥
जो मनुष्य सुख दुःख में समान रहता हे, जो मिट्टी, पत्थर और सोने को एक समान समझता हे, ऐसा ज्ञानी पुरुष, प्रिय और अप्रिय तथा निंदा और प्रशंशा में समभाव रखता हे , जो मान और अपमान में समभाव रखता हे तथा शत्रु और मित्र को समान समझता हे ऐसे सकाम कर्मो का परित्यागी पुरुष गुणातीत कहा गया हे।
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते
॥26॥
जो संपूर्ण रूप से भक्तियोग के द्वारा मेरी उपासना कर्ता हे वह शीघ्र ही तीनो गुणों को पर कर मुझ परब्रह्म को पाने का अधिकारी हे ।